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अर्थव्यवस्था से कैसे होगा ‘चीनी’ कम…

चीन के खिलाफ इस वक़्त पूरी दुनिया में गुस्सा है और भारत मे वो पूरा गुस्सा टिक-टॉक पर उतर रहा है. लेकिन चीनी बहिष्कार का मतलब सिर्फ टिक-टॉक अनइंस्टाल करना नहीं है, न ही आत्मनिर्भरता का मतलब चकमक करने वाली चीनी लाइट्स की जगह दीयों की खरीददारी तक है. ये पूरी बात इससे बहुत बड़ी है.

दुनिया में पश्चिम ने जब ग्लोबलाइजेशन की खिड़की खोलकर पूरब का रुख करना शुरू किया था, तो किसी को अंदाज़ा नहीं था कि व्यापार का सूरज पूरब से उगेगा. चीन ने अपने घर में तानाशाही और दुनिया में अपनी सस्ती तकनीक से ये कर दिखाया. और महज कुछ दशक में चीन ने आर्थिक मोर्चे पर खुद को सर्वशक्तिमान की कतार में खड़ा कर दिया. आज दुनिया की टोटल मैन्युफैक्चरिंग आउटपुट में 28.4 फीसदी हिस्सा अकेले चीन का है. वो देश जिसकी आर्थिक वैश्विक नीति एक बीमारी जैसी है, जिसे लग गयी, जल्दी छूटती नहीं बल्कि उसे कमज़ोर करती जाती है और फिर उसकी दवाई भी वो खुद बेचती है. एशिया के कई देश इसके उदाहरण है.

भारत इस बीमारी से न पूरी तरह बचा है न फंसा है. लेकिन चीन हमारे घर, हमारी ज़रूरत और हमारी अर्थव्यवस्था में बहुत अंदर तक घुसा हुआ है. हाथ में मोबाइल और उसमें भरे एप्स से टीवी-कंप्यूटर तक, रसोई में फ्रिज से बाथरूम में वाशिंग मशीन और पूजा घर में लक्ष्मी-गणेश से देश की सबसे बड़ी मूर्ति तक चीनी है. दीवाली पर आपके घर कैसी रोशनी होगी और देश में मोबाइल नेटवर्क 4जी से 5जी होगी, ये सबकुछ चीनी कंपनियां तय करती है. हम और आप 30 रुपये वाले झालर लाइट के बहिष्कार से ही चीन को सबक सिखाने पर उतारू रहते है, लेकिन चीन से हमारा कारोबार 30 रुपये का नहीं 92.68 बिलियन डॉलर सालाना का है भारतीय रुपये में तकरीबन 10 हज़ार करोड़. और इसमें भारत का इम्पोर्ट एक्सपोर्ट से पांच गुना है.

थोड़ा और डिटेल में देखे तो भारतीय उद्योग महासंघ (सीआईआई) की रिपोर्ट बताती है कि मोबाइल इंडस्ट्री अपने 88% कॉम्पोनेन्ट के लिए चीन पर निर्भर है. देश में तेज़ी से बढ़ रही इलेक्ट्रिक व्हीकल लगभग पूरी तरह से चीन पर डिपेंड कर रही है. केमिकल, फार्मा, मेडिकल डिवाइस के साथ इलेक्ट्रॉनिक सामानों के लिए इस वक़्त चीन हमारी ज़्यादातर ज़रूरतों को पूरा करता है.

अब ऐसी में अगर चीन का बहिष्कार करने को हम सोचे भी तो सवाल है कि देश की अर्थव्यवस्था इसके लिए कितनी तैयार है. एक तरफ हम निजीकरण और एफडीआई की नीति पर चल रहे है दूसरी तरफ लोकल का राग है. आंकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के कार्यकाल में ही 2014 के बाद चीन से इम्पोर्ट घटने की बजाए तेज़ी से बढ़ा है. 2014 में चीन से इम्पोर्ट 54 बिलियन डॉलर था जो 2019 तक बढ़कर 74 बिलियन डॉलर हो गया.

हालत ऐसी है कि चीन अपने डिफेक्टिव ही सही पर सस्ती चीजों से एक प्रकार कि आर्थिक आज़ादी छीन रही है. भारत जैसे देश में कोई स्वदेशी समान चीनी प्रोडक्ट्स का अल्टरनेटिव आसानी से नहीं बन पाता. न ही कोई स्टार्टअप्स चीनी एमएनसी के आगे ज़्यादा टाइम टिक पाती है. ऐसे में बिना विकल्प के चीन का बॉयकॉट सिर्फ थ्योरी है, प्रैक्टिकल नहीं.

पर कहीं से तो शुरुआत करनी होगी ही. आज नहीं तो कल. एक बार में बड़ा बदलाव नहीं आएगा, पर कोशिश करने पर बदलाव आएगा ज़रूर. थ्री इडियट्स फ़िल्म के रियल हीरो और इंजीनियर से एजुकेशन रिफॉर्मर बने लद्दाख के सोनम वांगचुक कहते हैं कि चीन को सेना बुलेट से जवाब देगी पर हमलोग वॉलेट से जवाब दे सकते हैं. एक हफ्ते में सॉफ्टवेयर और एक साल में हार्डवेयर बदलना होगा. यानी धीरे-धीरे हमें अपनी ज़िंदगी से ‘चीनी’ कम करना होगा.

 

Article By : Sourabh Roy (Assam)

 

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